उद्गम - जीवन-झर की शुरुआत
रात की चादर फैली है तारों की ओढनी ओढे
बिखरे बादल कालिख़ से, पुते हुए हैं ।
सब कुछ ठहर सा जाता है, जैसे प्राण खींच लिए हों तन से
दूर लेकिन इक आशा कि किरण नज़र आती है ।।
फिर भोर फूटी है नित नये अरमानों का क़ाफिला लेकर
मन क्यों , अँधेरे को ढूँढता है उजालों में ।
शायद रोशनी जो दिल में तस्वीर बनाती है
भरी दुपहरी भी घोर अंधकार का एहसास कराती है ।।
दिन से रात के सफ़र का देखो अद्भुत् दृश्य
संध्या की वेला रवि की परछाई बन जाती है ।
छूकर गुज़री है आग के गोले को
जलने का मज़ा न मिला, सितारों कि टिमटिम उसपर खिलखिलाती है ।।
1 comment:
आप तों रुमानी ho gaye :P
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