26 Feb 2007

इतिहास - बीते पलों का दर्पण

वो मृगतृष्णा का मृग है जीता-जागता सा
मेरी प्‍यास खु़द बुझाना चाहता है ।
भाग रहा है दूर मुझसे पर
मेरी निकटता का एहसास चाहता है ।।

बरसों बीते दूरियों में
अब परछाई भी गु़म हो जाती है ।
मन की आहट सुन मुस्काता था
अब आहें भी दम तोड जाती हैं ।।

बंजर मरु-भूमि में नया अंकुर फूटा
कस्‍तूर कि सुरभि ने मृग को छुआ है ।
राही के संग चल पडा है वो
अब प्‍यास की चिंता नहीं, भागीरथी का जन्‍म हुआ है ।।

2 comments:

Anonymous said...

ab miyaan samajh aayi hai, sahi hai

Anonymous said...

didn't know you wrote poems too!! when did this happen...loved this peom!!! good going!

neha